परमेश्वर के दैनिक वचन "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III" (अंश X)


परमेश्वर के दैनिक वचन "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III" (अंश X)


सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "देह में जीवन बिताते हुए, देहधारी परमेश्वर ने सामान्य मानवता को धारण किया; उसके अंदर एक सामान्य व्यक्ति की भावनाएँ और तर्कशक्ति थी। वह जानता था कि खुशी क्या है, और दर्द क्या है, और जब उसने मानवजाति को इस प्रकार के जीवन में देखा, तो उसने गहराई से महसूस किया कि लोगों को मात्र कुछ शिक्षाएँ देने से, और उन्हें कुछ प्रदान करने या उन्हें कुछ सिखाने से उन्हें पाप से बाहर आने में अगुवाई नही मिल सकती है।
और ना ही उनसे कुछ आज्ञाओं का पालन करवाने से उन्हें पापों से छुटकारा दिया जा सकता था—केवल मनुष्यों के पापों को लेकर और पापमय देह की समानता में आकर ही वह इसे मानव-जाति की स्वतन्त्रता में बदल सकता था, और इसे मनुष्यों के लिए परमेश्वर की क्षमा में बदल सकता था। जब प्रभु यीशु ने मनुष्यों के ज़िन्दगियों में पाप का अनुभव किया और उसके बाद उसने देखा, कि उसके हृदय में एक प्रबल इच्छा प्रकट हुई है—कि मनुष्यों को अनुमति दी जाए कि वे अपनी ज़िन्दगियों को पाप के संघर्ष से छुड़ा सकें। इस इच्छा से उसने और भी अधिक यह महसूस किया कि उसे सूली पर चढ़ना होगा और जितना जल्दी हो सके उनके पापों को लेना होगा। लोगों के साथ रहने और पाप में उनके जीवन की दुर्दशा को देखने, सुनने और महसूस करने के बाद, उस समय ये प्रभु यीशु के विचार थे। यह कि देहधारी परमेश्वर के पास मानव जाति के लिए इस प्रकार की इच्छा हो सकती थी, कि वह इस प्रकार के स्वभाव को प्रकट और प्रदर्शित कर सकता था—क्या यह कुछ ऐसा है जो एक औसत इंसान के पास हो सकता है? इस प्रकार के वातावरण में रहते हुए एक औसत इंसान क्या देखेगा? वे क्या सोचेंगे? यदि एक औसत इंसान ने इन सब का सामना किया होता, तो क्या वे समस्याओं को ऊँचे दृष्टिकोण से देख पाते? बिल्कुल नहीं! यद्यपि देहधारी परमेश्वर का रूप बिल्कुल मनुष्य के समान है, फिर भी वह मानवीय ज्ञान को सीखता है और मानवीय भाषा में बोलता है और कई बार अपनी युक्तियों को मानव जाति के माध्यमों या प्रकटीकरण के द्वारा प्रकट भी करता है, और जिस तरह से वह मनुष्यों, एवं चीज़ों के सार को देखता है, और जिस तरह भ्रष्ट लोग मानव जाति और चीज़ों के सार को देखते हैं वे बिल्कुल एक समान नहीं हैं। उस का दृष्टिकोण और वह ऊँचाई जिस पर वह खड़ा रहता है वह कुछ ऐसा है जिसे एक भ्रष्ट व्यक्ति के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर सत्य है, और देह जो वह पहने हुए है वह परमेश्वर के सार को धारण किए हुए है, और उसके विचार जो उसकी मानवता के द्वारा प्रकट किया गया है वे भी सत्य हैं। भ्रष्ट लोगों के लिए, जो कुछ वह देह में व्यक्त करता है वे सत्य, और जीवन के प्रावधान हैं। ये प्रावधान केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं हैं, परन्तु पूरी मानव जाति के लिए है। किसी भी भ्रष्ट व्यक्ति के लिए, उसके हृदय में केवल थोड़े से ही लोग हैं जो उस से जुड़े होते हैं। केवल कुछ ही ऐसे लोग हैं जिन के बारे में वह चिन्ता करता है, या जिन की वह परवाह करता है। जब विपत्ति सामने पर होती है, तो वह सब से पहले अपने बच्चों, जीवन साथी, या माता पिता के बारे में सोचता है, और वह व्यक्ति जो मानव जाति से थोड़ा और प्रेम करता है, कम से कम कुछ रिश्तेदारों या एक अच्छे मित्र के बारे में सोचता है; क्या वह इस से अधिक सोचता है? कभी भी नहीं! क्योंकि सभी घटनाओं के बावजूद मनुष्य मनुष्य है, और वह एक इंसान के दृष्टिकोण और ऊँचाई से ही सभी चीज़ों को देख सकता है। मगर देहधारी परमेश्वर भ्रष्ट व्यक्ति से पूर्णत: अलग है। इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर का देहधारी शरीर कितना सामान्य, कितना साधारण, कितना दीन है, या लोग उसे कितनी नीची दृष्टि से देखते हैं, मानवजाति के प्रति उसके विचार और उसकी मनोवृत्तियाँ ऐसी चीज़ें है जिन्हें कोई भी मनुष्य धारण नहीं कर सकता है, और ना ही उसका अनुकरण कर सकता है। वह हमेशा ईश्वरीय दृष्टिकोण, और सृष्टिकर्ता के रूप में अपने पद की ऊँचाई से मानव जाति का अवलोकन करता रहेगा। वह हमेशा परमेश्वर के सार और मनःस्थिति से मानव जाति को देखता रहेगा। वह एक औसत इंसान की ऊँचाई, और एक भ्रष्ट इंसान के दृष्टिकोण से वो मानव जाति को बिल्कुल नहीं देख सकता है। जब लोग मानव जाति को देखते हैं, तो वे मानवीय दृष्टि से देखते हैं, और वे मानवीय ज्ञान और मानवीय नियमों और सिद्धांतों जैसी चीज़ों को एक पैमाने की तरह प्रयोग करते हैं। यह उस दायरे के भीतर है जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं; यह उस दायरे के भीतर है जिसे भ्रष्ट लोग प्राप्त कर सकते हैं। जब परमेश्वर मानव जाति को देखता है, वह ईश्वरीय दर्शन के साथ देखता है, और अपने सार और जो उसके पास है तथा जो वह है उसे नाप के रूप में लेता है। इस दायरे में वे चीज़ें शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं देख सकते हैं, और यहीं पर देहधारी परमेश्वर और भ्रष्ट मनुष्य बिल्कुल अलग हैं। इस अन्तर को मनुष्यों और परमेश्वर के भिन्न भिन्न सार तत्वों के द्वारा निर्धारित किया जाता है, और ये भिन्न भिन्न सार ही हैं जो उन की पहचानों और पदस्थितियों को निर्धारित करते हैं साथ ही साथ उस दृष्टिकोण और ऊँचाई को भी जिस से वे चीज़ों को देखते हैं।"— "परमेश्वर को जानना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है" से उद्धृत
परमेश्वर कौन है? क्या प्रभु यीशु वास्तव में ईश्वर का पुत्र है?  प्रभु यीशु के बारे में अधिक जानने के लिए पढ़ें।

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