परमेश्वर के वचन "परमेश्वर के स्वभाव और उसके कार्य के परिणाम को कैसे जानें" (अंश IV)


परमेश्वर के वचन "परमेश्वर के स्वभाव और उसके कार्य के परिणाम को कैसे जानें" (अंश IV)

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर मनुष्य के परिणाम को एवं उस मानक को कैसे निर्धारित करता है जिसके द्वारा वह मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करता है इससे पहले कि तेरे पास अपने स्वयं के कोई दृष्टिकोण या निष्कर्ष हो, तुझे पहले अपने प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति को समझना चाहिए, परमेश्वर क्या सोच रहा है, और तब निर्णय करना चाहिए कि तेरी अपनी सोच सही है या नहीं।
परमेश्वर ने मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए कभी समय की इकाईयों का उपयोग नहीं किया है, और उसने उनके परिणाम को निर्धारित करने के लिए कभी भी किसी व्यक्ति के द्वारा सहे गए कष्ट की मात्रा का उपयोग नहीं किया है। तब परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करने के लिए मानक (मानदण्ड) के रूप में किसका उपयोग करता है? किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करने के लिए समय की ईकाईयों का उपयोग करना—यह वह है जो लोगों की धारणाओं से सबसे अधिक मेल खाता है। और साथ ही ऐसे व्यक्ति भी हैं जिन्हें तुम सब अकसर देखते हो, ऐसे लोग जिन्होंने समय के किसी मुकाम पर बहुत कुछ समर्पित किया था, बहुत कुछ खर्च किया था, बहुत कुछ चुकाया था, और बहुत कष्ट सहा था। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें, तुम लोगों की दृष्टि में, परमेश्वर के द्वारा बचाया जा सकता था। वह सब जिसे इन लोगों ने दिखाया है, वह सब जिसे इन लोगों ने जीया है, वह बिलकुल उस मानक के विषय में मानवजाति की अवधारणा है जिसके द्वारा परमेश्वर मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करता है। इसकी परवाह किए बगैर कि तुम लोग क्या विश्वास करते हो, मैं एक एक करके इन उदाहरणों को सूचीबद्ध नहीं करूंगा। संक्षेप में, जब तक यह परमेश्वर के स्वयं की सोच का मानक नहीं है, यह मनुष्य की कल्पनाओं से आता है, और यह सब मनुष्य की अवधारणा है। अपनी स्वयं की अवधारणाओं एवं कल्पनाओं पर आँख बन्द करके जोर देने का क्या परिणाम होता है? स्पष्ट रूप से, वह परिणाम केवल परमेश्वर के द्वारा तुझे ठुकराना हो सकता है। यह इसलिए है क्योंकि तू हमेशा परमेश्वर के सामने अपनी योग्यताओं का झूठा दिखावा करता है, परमेश्वर से स्पर्धा करता है, और परमेश्वर से विवाद करता है, तुम लोग सचमुच में परमेश्वर की सोच को समझने का प्रयास नहीं करते हो, और न ही तू मानवता के प्रति परमेश्वर के इरादों एवं परमेश्वर की मनोवृत्ति को समझने की कोशिश करता है। इस तरह से आगे बढ़ना सबसे बढ़कर स्वयं का सम्मान करना है, और परमेश्वर का सम्मान करना नहीं है। तू स्वयं में विश्वास करता है; तू परमेश्वर में विश्वास नहीं करता है। परमेश्वर को इस प्रकार का व्यक्ति नहीं चाहिए, और परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति का उद्धार नहीं करेगा। यदि तू इस प्रकार के दृष्टिकोण का परित्याग कर सकता है, और फिर अतीत की इन गलत दृष्टिकोणों को सुधार सकता है; यदि तू परमेश्वर की मांगों के अनुसार आगे बढ़ सकता है; तो समय के इस मुकाम के आगे से परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का अभ्यास करना शुरू कर दो; परमेश्वर का सम्मान करो क्योंकि वह सभी चीज़ों में सबसे महान है; स्वयं को परिभाषित करने के लिए एवं परमेश्वर को परिभाषित करने के लिए अपनी स्वयं की व्यक्तिगत कल्पनाओं, दृष्टिकोण, या विश्वास का उपयोग मत करो। और इसके बजाय, तू सभी मायनों में परमेश्वर के इरादों की खोज कर, तू मानवता के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति के एहसास एवं समझ को हासिल कर, और तू परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर के मानक का उपयोग कर—यह बहुत बढ़िया होगा! इसका अर्थ होगा कि तू परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग की शुरुआत करने वाला है। चूँकि परमेश्वर मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए एक मानक के रूप में इसका उपयोग नहीं करता है कि किस प्रकार लोग इस तरीके से या उस तरीके से, एवं अपने विचारों एवं दृष्टिकोण से सोचते हैं, तो वह किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है? परमेश्वर मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए परीक्षाओं का उपयोग करता है। मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने हेतु परीक्षाओं का उपयोग करने के लिए दो मानक हैं: पहला परीक्षाओं की संख्या है जिनसे होकर लोग गुज़रते हैं, और दूसरा इन परीक्षाओं में लोगों का नतीजा है। ये दो संकेत सूचक हैं जो मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करते हैं। अब हम इन दो मानकों पर विस्तार पूर्वक बात करेंगे। सबसे पहले, जब तेरा सामना परमेश्वर की ओर से आई किसी परीक्षा से होता है, (नोट: यह संभव है कि तेरी नज़रों में यह परीक्षा एक छोटी परीक्षा है और जिक्र करने योग्य नहीं है), तो परमेश्वर तुझे स्पष्ट रूप से अवगत कराएगा कि यह तेरे ऊपर परमेश्वर का हाथ है, और यह कि वह परमेश्वर है जिसने तेरे लिए इस परिस्थिति का प्रबंध किया है। जब तेरी कद-काठी अपरिपक्व हो, परमेश्वर तेरी जांच करने के लिए परीक्षाओं का प्रबंध करेगा। ये परीक्षाएं तेरी कद-काठी के अनुरूप होंगी, जिसे तू समझने में सक्षम हो, और जिसका तू सामना करने में सक्षम है। तेरे जीवन के किस भाग की जांच करने के लिए? परमेश्वर के प्रति तेरी मनोवृत्ति की जांच करने के लिए। क्या यह मनोवृत्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है? निश्चित रूप से यह महत्वपूर्ण है! इसके अतिरिक्त, यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है! क्योंकि मनुष्य की यह मनोवृत्ति वह परिणाम है जिसे परमेश्वर चाहता है, जहाँ तक परमेश्वर की बात है यह अत्यंत महत्वपूर्ण बात है। अन्यथा इस प्रकार के कार्य में संलग्न होने के द्वारा परमेश्वर लोगों पर अपने प्रयासों को खर्च नहीं करता। इन परीक्षाओं की रीति के द्वारा परमेश्वर अपने प्रति तेरी मनोवृत्ति देखना चाहता है, वह देखना चाहता है कि तू सही पथ पर हैं या नहीं; और वह देखना चाहता है कि तू परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता है या नहीं। इसलिए, इसकी परवाह किए बगैर कि उस विशेष समय पर तू बहुत सारी सच्चाई समझता है या थोड़ी सी, तुझे अभी भी परमेश्वर की परीक्षा का सामना करना होगा, और सच्चाई की उस मात्रा में जिसे तू समझता है कोई वृद्धि होने के बाद, परमेश्वर तेरे लिए अनुरूप परीक्षाओं का प्रबंध करना निरन्तर जारी रखेगा। जब एक बार फिर से तेरा सामना किसी परीक्षा से होता है, तो इसी बीच परमेश्वर देखना चाहता है कि तेरा दृष्टिकोण, तेरे विचार, एवं परमेश्वर के प्रति तेरी मनोवृत्ति में कुछ प्रगति हुई है या नहीं। कुछ लोग कहते हैं: परमेश्वर क्यों सदैव लोगों की मनोवृत्ति को देखना चाहता है? क्या परमेश्वर ने नहीं देखा है कि वे किस प्रकार सत्य को अमल में लाते हैं? वह क्यों अभी भी लोगों की मनोवृत्तियों को देखना चाहेगा? यह बुद्धिरहित प्रवृत्ति है! चूँकि परमेश्वर इस तरह से आगे बढ़ता है, तो परमेश्वर के इरादे ज़रूर उसमें निहित होंगे। परमेश्वर सदैव उनकी ओर से लोगों का अवलोकन करता है, उनके हर एक वचन एवं कार्य की, एवं उनके हर एक काम एवं गतिविधि की, यहाँ तक कि उनके हर एक सोच एवं विचार की निगरानी करता है। जो कुछ भी लोगों के साथ घटित होता है: उनके भले कार्य, उनकी गलतियां, उनके अपराध, और यहाँ तक कि उनके विद्रोह एवं विश्वासघात, परमेश्वर उनके परिणाम को निर्धारित करने में सबूत के रूप में उन सबका हिसाब रखेगा। जैसे-जैसे परमेश्वर का कार्य कदम दर कदम निर्मित होता जाता है, तू अधिक से अधिक सच्चाई को सुनता है, तू अधिक से अधिक सकारात्मक बातों को, सकारात्मक जानकारियों को, और सत्य की वास्तविकता को ग्रहण करता है। इस प्रक्रिया के क्रम के दौरान, तुझसे की गई परमेश्वर की अपेक्षाएं भी बढ़ेंगी। ठीक उसी समय, परमेश्वर तेरे लिए और अधिक भारी परीक्षाओं का प्रबंध करेगा। उसका लक्ष्य यह जांच करना है कि इस बीच परमेश्वर के प्रति तेरी मनोवृत्ति परिपक्व हुई है या नहीं। निश्चित रूप से, इस समय के दौरान, वह दृष्टिकोण जिसकी मांग परमेश्वर तुझसे करता है वह सत्य की वास्तविकता की तेरी समझ के अनुरूप होता है। जैसे-जैसे तेरी कद-काठी धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे वह मानक भी धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा जिसकी मांग परमेश्वर तुझसे करता है। जब तू अपरिपक्व होता है, तब परमेश्वर तुझे एक बहुत ही छोटा मानक देगा; जब तेरी कद-काठी थोड़ी बड़ी होती है, तब परमेश्वर तुझे थोड़ा बड़ा मानक देगा। परन्तु जब तू सारी सच्चाईयों को समझ जाता है उसके पश्चात् परमेश्वर किसके समान होगा? परमेश्वर तुझसे और भी अधिक बड़ी परीक्षाओं का सामना करवाएगा। इन परीक्षाओं के मध्य, परमेश्वर जो कुछ पाना चाहता है, परमेश्वर जो कुछ देखना चाहता है वह परमेश्वर के विषय में तेरा गहरा ज्ञान और तेरा सच्चा भय है। इस समय, तुझसे की गई परमेश्वर की मांगें उस समय की अपेक्षा और अधिक ऊंची एवं"अधिक कठोर" होंगी जब तेरी कद-काठी और भी अधिक अपरिपक्व थी (टिप्पणी: लोग इसे कठोर रूप में देखते हैं, परन्तु परमेश्वर इसे तर्कसंगत रूप में देखता है)। जब परमेश्वर लोगों को परीक्षाएं दे रहा है, तो वह किस प्रकार की वास्तविकता की सृष्टि करना चाहता है? परमेश्वर लगातार मांग कर रहा है कि लोग अपना हृदय उसे दे दें। कुछ लोग कहेंगे: "कोई कैसे उसे दे सकता है? मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ, मैं ने अपना घर एवं आजीविका छोड़ दी है, मैं परमेश्वर के लिए खर्च करता हूँ! क्या ये सब परमेश्वर को अपना हृदय देने के उदाहरण नहीं हैं? मैं और किस प्रकार से अपना हृदय परमेश्वर को दे सकता हूँ? क्या ऐसा हो सकता है कि ये परमेश्वर को अपना हृदय देने के उदाहरण नहीं हैं? परमेश्वर की विशिष्ट अपेक्षा क्या है?" यह अपेक्षा अत्यधिक साधारण है। वास्तव में, कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपनी परीक्षाओं के विभिन्न चरणों में विभिन्न मात्राओं में अपना हृदय पहले से ही परमेश्वर को दे दिया है। परन्तु बड़ी मात्रा में लोगों ने अपना हृदय परमेश्वर को कभी नहीं दिया है। जब परमेश्वर आपको कोई परीक्षा देता है, तब परमेश्वर देखता है कि आपका हृदय परमेश्वर के साथ है, शरीर के साथ है, या शैतान के साथ है। जब परमेश्वर आपको कोई परीक्षा देता है, तब परमेश्वर देखता है कि तू परमेश्वर के विरोध में खड़ा है या तू ऐसी स्थिति में खड़ा है जो परमेश्वर के अनुरूप है, और वह यह देखता है कि तेरा हृदय उसके समान उसी ओर है या नहीं। जब तू अपरिपक्व हो और सच्चाई से परमेश्वर से प्रार्थना कर सकता है, परमेश्वर को अपना हृदय देने के लिए तैयार हो सकता है, परमेश्वर को अपना सर्वोच्च परमेश्वर बना सकता है, और परमेश्वर को उन चीज़ों को अर्पित करने के लिए तैयार हो सकता है जिनके विषय में तू विश्वास करता है कि वे अत्यंत बहुमूल्य हैं। परमेश्वर को पहले से अपना हदय देना यही है। जब तू अधिक से अधिक प्रचार सुनता है, और तू अधिक से अधिक सत्य को समझता है, तो तेरी कद-काठी भी धीरे-धीरे परिपक्व होगी। वह मानक जिसकी मांग इस समय परमेश्वर तुझसे करता है वह उसके समान नहीं है जब तू अपरिपक्व था; वह उसकी अपेक्षा अधिक ऊँचे मानक की मांग करता है। जब धीरे-धीरे मनुष्य के हृदय को परमेश्वर को दे दिया जाता है, तो यह परमेश्वर के निकट और अधिक निकट आता जाता है; जब मनुष्य सचमुच में परमेश्वर के निकट आ सकता है, उनके पास लगातार ऐसा हदय होता है जो उसका भय मानता है। परमेश्वर को इस प्रकार का हदय चाहिए। जब परता है और परीक्षाओं का सामना कर रहा होता है, तब तेरा आत्मविश्वास बहुत ही कम होता है, और तू ठीक-ठीक यह नहीं जान सकता है कि परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने के लिए तुझे क्या करने की आवश्यकता है क्योंकि तेरे पास सत्य की एक सीमित समझ होती है। इन सबके बावजूद, तू ईमानदारी सेमेश्वर किसी का हदय पाना चाहता है, तो वह उन्हें अनगिनित परीक्षाएं देता है। इन परीक्षाओं के दौरान, यदि परमेश्वर उस व्यक्ति के हदय को नहीं पाता है, और न ही वह यह देखता है कि इस व्यक्ति के पास कोई मनोवृत्ति है—कहने का अभिप्राय है कि वह यह नहीं देखता है कि यह व्यक्ति काम में लगा रहता है या इस रीति से व्यवहार करता है मानो परमेश्वर का भय मानता है, और वह उस मनोवृत्ति एवं दृढ़ संकल्प को नहीं देखता है जो इस व्यक्ति से बुराई को दूर करता है। यदि यह ऐसा है, तो अनगिनित परीक्षाओं के बाद, इस व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का धीरज हट जाएगा, और वह उस व्यक्ति को अब और बर्दाश्त नहीं करेगा। वह अब आगे से उन्हें परीक्षाएं नहीं देगा, और वह अब आगे से उनमें कार्य नहीं करेगा। तब उस व्यक्ति के परिणाम का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उनके पास कोई परिणाम नहीं होगा? यह संभव है कि ऐसे व्यक्ति ने कुछ बुरा न किया हो। यह भी संभव है कि उन्होंने बिगाड़ने या परेशान करने के लिए कुछ भी न किया हो। यह भी संभव है कि उन्होंने खुलकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं किया हो? फिर भी, ऐसे व्यक्ति का हदय परमेश्वर से छिपा हुआ है। उनके पास परमेश्वर के प्रति कभी कोई स्पष्ट मनोवृत्ति एवं दृष्टिकोण नहीं था, और परमेश्वर स्पष्ट रूप से नहीं देख सकता है कि उनका हदय परमेश्वर को दिया गया है, और वह स्पष्ट रूप से नहीं देख सकता है कि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का प्रयास कर रहा है? परमेश्वर के पास इन लोगों के लिए आगे से और धीरज नहीं है, वह आगे से और कोई कीमत नहीं चुकाएगा, वह आगे से और दया नहीं करेगा, और वह आगे से उन पर कार्य नहीं करेगा। ऐसे व्यक्ति के विश्वास का जीवन परमेश्वर में पहले ही बीत चुका है। यह इसलिए है क्योंकि उन सभी परीक्षाओं में जिन्हें परमेश्वर ने इस व्यक्ति को दिया है, परमेश्वर ने उस परिणाम को प्राप्त नहीं किया है जिसे वह चाहता था। इस प्रकार, बहुत से लोग हैं जिनमें मैं ने कभी भी पवित्र आत्मा के प्रबुद्धता एवं रोशनी को नहीं देखा है। इसे देखना कैसे संभव है? शायद इस प्रकार के व्यक्ति ने बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, और सतही तौर पर वे सक्रिय रहे हैं। उन्होंने बहुत सी पुस्तकें पढ़ी हैं, बहुत से मामलों को संभाला है, टिप्पणियों से 10 लेखन पुस्तकों को भर दिया है, और बहुत सारी पत्रियों एवं सिद्धान्तों पर महारत हासिल की है। फिर भी, कभी कोई देखने लायक प्रगति नहीं हुई, और इस व्यक्ति की ओर से परमेश्वर के प्रति कभी कोई देखने लायक दृष्टिकोण नहीं है, और न ही कोई स्पष्ट मनोवृत्ति है। कहने का तात्पर्य है कि तू इस व्यक्ति के हदय को नहीं देख सकता है। उनका हदय हमेशा लिपटा हुआ रहता है, उनका हृदय मुहरबंद है—यह परमेश्वर के लिए मुहरबंद है, अतः परमेश्वर ने इस व्यक्ति के असली हदय को नहीं देखा है, उसने परमेश्वर के प्रति इस व्यक्ति के असली भय को नहीं देखा है, और इससे भी बढ़कर, उसने नहीं देखा है कि किस प्रकार यह व्यक्ति परमेश्वर के मार्ग में चलता है। यदि अब तक परमेश्वर ने इस प्रकार के व्यक्ति को अर्जित नहीं किया है, तो क्या वह उन्हें भविष्य में अर्जित कर सकता है? वह अर्जित नहीं कर सकता है! क्या परमेश्वर उन चीज़ों के लिए लगातार प्रयास करता रहेगा जिन्हें पाया नहीं जा सकता है? वह नहीं करेगा! इन लोगों के प्रति परमेश्वर की वर्तमान मनोवृत्ति क्या है? (वह उन्हें ठुकरा देता है, वह उन पर ध्यान नहीं देता है।) वह उन पर ध्यान नहीं देता है! परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति पर ध्यान नहीं देता है, वह उन्हें ठुकरा देता है। तुम लोगों ने इन शब्दों को अतिशीघ्रता से एवं बहुत ही सटीकता से याद कर लिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जो कुछ तुम सब ने सुना है उसे तुम लोगों ने समझ लिया है! कुछ लोग हैं जो, परमेश्वर के अनुसरण के आरम्भ में, अपरिपक्व एवं अनभिज्ञ होते हैं; वे परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते हैं; वे यह भी नहीं जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना क्या है, और परमेश्वर में विश्वास करने एवं परमेश्वर का अनुसरण करने के मानव-निर्मित एवं गलत मार्ग को स्वीकार कर लेते हैं। जब इस प्रकार के व्यक्ति का सामना किसी परीक्षा से होता है, तो वे इसके विषय में जागरूक नहीं होते हैं, और वे परमेश्वर के मार्गदर्शन एवं प्रबुद्धता के प्रति सुन्न होते हैं। वे नहीं जानते हैं कि परमेश्वर को अपना हृदय देना क्या होता है, और किसी परीक्षा के दौरान दृढ़ता से स्थिर खड़ा रहना क्या होता है? परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को समय की सीमित मात्रा देगा, और इस समय के दौरान, वह उन्हें समझने देता है कि परमेश्वर की परीक्षाएं क्या हैं, और परमेश्वर के इरादे क्या हैं। बाद में, ऐसे व्यक्ति को अपने दृष्टिकोण का प्रदर्शन करने की आवश्यकता होती है। ऐसे लोगों के सम्बन्ध में जो इस चरण में हैं, परमेश्वर अभी भी प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसे लोगों के सम्बन्ध में जिनके पास कुछ दृष्टिकोण तो हैं फिर भी आगे पीछे डोलते रहते हैं, जो अपना हदय परमेश्वर को देना तो चाहते हैं किन्तु ऐसा करने के लिए उनका मेलमिलाप नहीं हुआ है, जब उनका सामना किसी बड़ी परीक्षा से होता है, यद्यपि उन्होंने कुछ मूल सच्चाईयों का अभ्यास किया है, फिर भी वे उससे जी चुराते हैं और छोड़ देना चाहते हैं—इन लोगों के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति क्या है? परमेश्वर के पास अभी भी ऐसे लोगों के प्रति थोड़ी बहुत अपेक्षा है। परिणाम उनके दृष्टिकोणों एवं प्रदर्शनों पर निर्भर होते हैं। परमेश्वर किस प्रकार प्रत्युत्तर देता है यदि लोग उन्नति करने के लिए सक्रिय नहीं होते हैं? वह छोड़ देता है। यह इसलिए है क्योंकि इससे पहले कि परमेश्वर तुझे छोड़ दे, तू पहले ही स्वयं को छोड़ देता है। इस प्रकार, ऐसा करने के लिए तू परमेश्वर को दोष नहीं दे सकता है, क्या तू दोष दे सकता है? क्या यह सही है? (हाँ सही है।)"— "परमेश्वर को जानना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है" से उद्धृत
लौटे हुवे प्रभु यीशु की अभिव्यक्ति, कृपया "वचन देह में प्रकट होता है" पढ़ें


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