परमेश्वर की इच्छा का पालन करने वाले लोग ही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पा सकते हैं।


कल की पोस्ट "किस तरह के लोग स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं?" पढ़ने के बाद बहुत से भाई-बहनों ने हमें इस प्रश्न के बारे में और विस्तार से जानने के लिए संदेश भेजे। उनमें से बहुत से लोग प्रभु के वचनों से जानते हैं कि केवल वे ही जो स्वर्गिक पिता की इच्छा पूरी करते हैं, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन वे यह नहीं समझते कि स्वर्गिक पिता की इच्छा कैसे पूरी करें। अब इस मुद्दे के संबंध में जॉन और पीटर की चर्चा पर ध्यान दें।
जॉन ने कहा:“प्रभु ने कहा, ‘उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की,और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?’तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।"(मत्ती 7:22-23)(© BSI )
प्रभु के वचन सत्य हैं। परंतु, मैं यह नहीं समझता कि परमेश्वर के लिए त्याग करना और खर्च करना स्वर्गिक पिता की इच्छा को पूरा करने के बराबर नहीं है। क्या यह ईश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं है?
पीटर ने कहा: "हमारी धारणाओं के अनुसार,जो कोई भी कष्ट उठाता है और प्रभु के लिए काम करता है और उनके लिए खर्च और त्याग करता है, वह परमेश्‍वर की इच्छा का पालन कर रहा है।यहूदी धर्म के मुख्य याजक, शास्त्री और फरीसी भी बहुत पवित्र दिखते थे।उन्होंने सुसमाचार का उपदेश देने के लिए दूर-दूर तक यात्रा की।तो क्यों प्रभु यीशु ने उनकी निंदा की और उन्‍हें श्राप दिया?यह बात विचार करने के लायक है, है ना?हम मनुष्य की धारणाओं का उपयोग करके परमेश्‍वर की इच्छा के पालन का निर्धारण नहीं कर सकते।परमेश्‍वर की इच्छा के लिए सही आज्ञाकारिता उन लोगों को संदर्भित करती है जो परमेश्‍वर के कार्य और वचनों का पालन कर सकते हैं,परमेश्‍वर के वचनों पर अमल कर सकते हैं, परमेश्‍वर की आज्ञाओं का पालन कर सकते हैं,और परमेश्‍वर की इच्छा और आवश्यकताओं के अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं।आप कहते हैं कि जो भी प्रभु के लिए कष्ट उठाते हैं और कार्य करते हैं, वे परमेश्‍वर की इच्छा का पालन कर रहे हैं।तो आइए प्रभु यीशु की आवश्यकताओं का उपयोग करके उनका मूल्यांकन करें।मनुष्य के लिए प्रभु यीशु की सबसे महत्वपूर्ण ज़रूरत क्या थी?"तू परमेश्‍वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख।बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है।और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख" (मत्ती 22:37-39)(© BSI )।लेकिन क्या हम ऐसा कर रहे हैं?
परमेश्‍वर की इच्छा का पालन करने का मतलब है कि हम अपने हृदय, आत्मा और मन की गहराइयों के साथ परमेश्‍वर से प्रेम करें।इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कितना काम करते हैं, या हम कितना कष्ट उठाते हैं, हमारी कोई निजी महत्वाकांक्षा या अशुद्धता नहीं होनी चाहिए,हमें पूरी तरह से ख़ुद को परमेश्‍वर का आज्ञापालन और उनकी संतुष्टि और परमेश्‍वर की इच्छा को पूरा करने के लिए समर्पित होना चाहिए। हमें बिना क्षतिपूर्ति की मांग किए, अपनी ख़ुशी से परमेश्‍वर के लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए।परमेश्‍वर द्वारा परीक्षाओं और दुःखों के दौर में, हमें उनसे शिकायत नहीं करना चाहिए और न ही उन्हें धोखा देना चाहिए,और ख़ुद को परमेश्‍वर की व्यवस्थाओं की दया दृष्टि पर छोड़ देना चाहिए।अब्राहम, यूहन्ना और पतरस की तरह,जब परमेश्‍वर परीक्षा लेते हैं तो हमें पूर्ण आज्ञाकारिता और बिना किसी शिकायत या सवाल के उसे स्वीकार करना चाहिए,और परमेश्‍वर के लिए अच्छी और बढ़िया गवाही देनी चाहिए। ये परमेश्‍वर की इच्छा का पालन करना है।
हम बहुत से ऐसे लोगों को देखते हैं जो प्रभु में विश्वास करने के बाद पीड़ा सहने, काम करने और त्याग करने में सक्षम होते हैं,लेकिन उनकी पीड़ा और त्याग में हम व्यक्तिगत इच्छा और महत्वाकांक्षा पाते हैं।वे पुरस्कार और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की उम्मीद करते हैं।क्या यह परमेश्‍वर का इस्तेमाल करना और उनको धोखा देना नहीं है?यह कैसे सत्‍य पर अमल करके परमेश्‍वर को संतुष्ट करना है? कुछ लोग परमेश्वर के लिए खर्च करने के लिए सब कुछ छोड़ देते हैं, लेकिन जब उन पर कोई आपदा आती है, या वे परीक्षणों और मुश्किलों से गुज़रते हैं,या किसी बीमारी और दुख का सामना करते हैं,तो वे परमेश्वर को ही दोष देते हैं या उनके खिलाफ़ शिकायत करते हैं,या फिर उन्हें नकारते हैं, उनसे विश्वासघात करते हैं, और अलग हो जाते हैं।क्या उनका त्याग और खर्च, ईश्वर की इच्छा का अनुसरण करने के समतुल्य है?ये यह साबित करने के लिए पर्याप्त तथ्य हैं कि लोगों को परमेश्‍वर का कोई ज्ञान नहीं है।
कि लोगों की शैतानी प्रकृति बनी हुई है, और लोगों को जीवन के रूप में सत्‍य नहीं मिला है।यहां तक ​​कि जो लोग परमेश्‍वर के लिए कष्ट उठा सकते हैं, श्रम और त्याग कर सकते हैं, वे ऐसा इसलिए करते हैं कि वे परमेश्‍वर के साथ अदला-बदली का व्यापार कर सकें।वे परमेश्‍वर पर इसलिए विश्वास करते हैं कि वे उनका आशीर्वाद पा सकें।
ऐसे लोग परमेश्‍वर के वचनों का पालन बिल्कुल भी नहीं कर रहे हैं, और परमेश्‍वर की इच्छा की परवाह नहीं करते हैं,बहुत कम लोग परमेश्‍वर की आज्ञाकारिता और प्रेम के साक्षी हैं।ऐसे लोग परमेश्‍वर की इच्छा का पालन कैसे कर रहे हो सकते हैं?और वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और अनन्‍त जीवन पाने के योग्य कैसे हो सकते हैं?
"मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंज़िल आयु,वरिष्ठता, पीड़ा की मात्रा,और सबसे कम, दुर्दशा के अंश जिसे वे आमंत्रित करते हैं के आधार पर नहीं,बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि वे सत्य को धारण करते हैं या नहीं। इसे छोड़कर अन्य कोई विकल्प नहीं है।तुम्हें यह अवश्य समझना चाहिए कि वे सब जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते हैं दण्डित किए जाएँगे।यह एक अडिग तथ्य है।"परमेश्‍वर प्रत्येक मनुष्य के लक्ष्य का निर्धारण इस आधार पर नहीं करते कि वह कितना कार्य करता है या वह कितने कष्टों से गुजरता है,बल्कि इस आधार पर करते हैं कि क्या वह सत्य धारण करता है,परमेश्‍वर के वचनों पर अमल करता है, और परमेश्‍वर की इच्छा का पालन करता है,क्योंकि सिर्फ़ वे जो परमेश्‍वर की इच्छा का पालन करते हैं, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के योग्य होंगे और अनन्‍त जीवन प्राप्त करेंगे।यह परमेश्‍वर के धार्मिक स्वभाव द्वारा निर्धारित किया जाता है, और इसे बदला नहीं जा सकता।
जॉन ने कहा: "आपके साथ सहभागिता करने से हमें यह समझ में आया कि परमेश्वर की आशीष पाने की इच्छा रखते हुए कठिन परिश्रम करने से हम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। तब हम अपने गलत इच्छा से कैसे छुटकारा पा सकते हैं और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने वाले कैसे बन सकते हैं?"
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