अध्याय 16. सत्य के बिना परमेश्वर को अपमानित करना आसान है


आप लोगों का “सत्य का सार प्रस्तुत करना” लोगों को सत्य से जीवन प्राप्त करने या अपने स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने देने के लिए नहीं किया जाता है। इसके बजाय, ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि लोग सत्य के भीतर से कुछ ज्ञान और सिद्धांतों में निपुणता प्राप्त कर सकें। वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो कि वे परमेश्वर के कार्य के पीछे के प्रयोजन को समझते हैं, जबकि वास्तव में उन्होंने केवल सिद्धांत के कुछ शब्दों में निपुणता हासिल की है। वे सत्य के मर्म को नहीं समझते हैं, और यह धर्मशास्त्र का अध्ययन करने या बाइबल पढ़ने से भिन्न नहीं है। आप हमेशा इन पुस्तकों या उन सामग्रियों को छाँट रहे हैं, और इसलिए सिद्धांत के इस पहलू या ज्ञान के उस पहलू को धारण करने वाले बन गए हैं। आप सिद्धांतों के प्रथम श्रेणी के वक्ता हैं - लेकिन जब आप बोल लेते हैं तो क्या होता है? तब लोग अनुभव करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें परमेश्वर के कार्य की कोई समझ नहीं होती है और स्वयं की भी समझ नहीं होती है। अंत में, उन्होंने जो कुछ प्राप्त किया होगा वे होंगे सूत्र और नियम। आप उन चीजों के बारे में बात कर सकते हैं लेकिन और कुछ नहीं, इसलिए यदि परमेश्वर ने कुछ नया किया, तो क्या आप लोगों को ज्ञात सभी सिद्धांत उस चीज से मेल खाने वाले हो सकते हैं जो परमेश्वर करता है? इसलिए, आप की ये बातें केवल नियम हैं और आप लोगों से केवल धर्मशास्त्र का अध्ययन करवा रहे हैं: आप उन्हें परमेश्वर के वचन का अनुभव या सत्य का अनुभव करने की अनुमति नहीं दे रहे हैं। तो वे पुस्तकें जिनके माध्यम से आप छाँटते हैं, लोगों को केवल धर्मशास्त्र और ज्ञान में, नए सूत्रों में और नियमों और प्रथाओं में ही ला सकती हैं। वे लोगों को परमेश्वर के सामने नहीं ला सकती हैं, या लोगों को सत्य को समझने या परमेश्वर की इच्छा को समझने की अनुमति नहीं दे सकती हैं। उन वचनों के बारे में प्रश्न के बाद प्रश्न पूछ कर, फिर उत्तर दे कर, आप एक रूपरेखा या सारांश बनाते हैं, और आपको लगता है कि नीचे के लोग तब आसानी से उन्हें समझ सकते हैं। याद रखने में आसान होने के अलावा, एक नज़र में ये इन प्रश्नों के बारे में स्पष्ट हैं, और आपको लगता है कि इस तरह से कार्य करना बहुत अच्छा है। लेकिन वे जो समझ रहे हैं वह वास्तविक मर्म नहीं है; यह वास्तविकता से भिन्न है और सिर्फ सैद्धान्तिक शब्द हैं। तो यह बेहतर होगा कि आप इन चीजों को बिल्कुल भी नहीं करें। आप लोगों को ज्ञान को समझने और ज्ञान में निपुणता प्राप्त करने की ओर ले जाने के लिए ये कार्य करते हैं। आप अन्य लोगों को सिद्धान्तों में, धर्म में लाते हैं, और उनसे परमेश्वर का अनुसरण और धार्मिक सिद्धांतों के भीतर परमेश्वर में विश्वास करवाते हैं। क्या तब आप बस पॉल के समान नहीं हैं? आपको लगता है कि सत्य के ज्ञान में निपुणता प्राप्त करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, और ऐसा ही परमेश्वर के वचनों के कई अंशों को कंठस्थ करना है। लेकिन लोग परमेश्वर के वचन को कैसे समझते हैं, यह बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है। आपको लगता है कि लोगों के लिए परमेश्वर के कई वचनों को याद रख पाना, बहुत सारे सिद्धांतों को बोल पाना और परमेश्वर के कई वचनों के भीतर कई सूत्रों की खोज करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए, आप हमेशा इन चीजों को व्यवस्थित करना चाहते हैं ताकि हर कोई एक से भजन पत्र से गा रहा हो और एक सी बात कह रहा हो, ताकि हर कोई वही सिद्धांत बोलता हो, हर किसी के पास एक सा ज्ञान हो और हर कोई एक से नियम रखता हो - यह आपका उद्देश्य है। आप ऐसा करते हैं मानो कि लोगों को बेहतर समझाते हैं, जबकि इसके विपरीत आपको कोई अंदाज़ा नहीं है कि ऐसा करके आप लोगों को उन नियमों के बीच ला रहे हैं जो परमेश्वर के वचनों के सत्य के बाहर हैं। लोगों को वास्तविक समझ प्राप्त करवाने के लिए, आपको वास्तविकता के साथ जुड़ना चाहिए, कार्य के साथ जुड़ना चाहिए, और लोगों को परमेश्वर के सामने लाना चाहिए। केवल इसी तरह से लोग सत्य में निपुणता प्राप्त कर सकते हैं। यदि आपके प्रयास केवल सूत्रों और नियमों को लिखित शब्दों पर लागू करने की ओर निर्देशित हैं, तो आप सत्य की समझ तक नहीं पहुँच पाएँगे, दूसरों को वास्तविकता की ओर नहीं ले जा पाएँगे, और दूसरों को अधिक परिवर्तन अनुभव करने और उनके स्वयं के बारे में अधिक समझने की अनुमति देने में बहुत कम सक्षम होंगे। यदि लिखित शब्द लोगों के लिए विकल्प हो सकता, तो आप लोगों को कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होती। आप लोगों ने अभी तक परमेश्वर के वचनों के कानूनों की खोज नहीं की है, और बहुत से लोग यह कहते हैं: “परमेश्वर के वचनों में कोई तर्क नहीं है। प्रत्येक लेख सभी प्रकार की सामग्री से युक्त होता है और हर अंश और हर वाक्य का एक भिन्न अर्थ होता है जिससे हमें इसे याद रखना और समझना कठिन हो जाता है। यहाँ तक कि किसी परिच्छेद के सामान्य विचार का सारांश करना भी संभव नहीं है।” परमेश्वर का वचन कोई उपन्यास नहीं है, न ही यह गद्य या साहित्य का कोई कार्य है। यह सत्य है; यह वह वचन है जो मनुष्य को जीवन देता है। वचन कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आप लोग मन में विचार करके समझ सकते हैं, न ही इसके कानूनों का कुछ अतिरिक्त प्रयासों के साथ सारांश किया जा सकता है। इसलिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि लोगों को इसके नियमों के किस पहलू की थोड़ी समझ या बोध है, यह केवल एक-तरफा समझ हो सकती है, उथली, सागर में सिर्फ एक बूँद, और यह मूल रूप से उस तक पहुँचने में असमर्थ है जो परमेश्वर का मूल मनोरथ है। परमेश्वर के वचनों का कोई भी लेख सत्य के कई पहलुओं से युक्त होगा। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के देहधारण के रहस्य से संबंधित किसी लेख में देहधारी परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य के साथ-साथ देहधारी परमेश्वर के महत्व को भी समाविष्ट किया जाएगा। और इसमें यह भी समाविष्ट किया जाएगा कि लोगों को ईश्वर पर कैसे विश्वास करना चाहिए, और शायद यह भी समाविष्ट किया जा सकता है कि लोगों को परमेश्वर को कैसे समझना और प्यार करना चाहिए; इसमें सत्य के कई पहलुओं का समावेश किया जाएगा। यदि, आपकी कल्पना के अनुसार, देहधारण का महत्व केवल कुछ पहलुओं से युक्त होता और कुछ वाक्यों में सामान्यीकृत किया जा सकता, तो परमेश्वर का कार्य मनुष्य पर कौन सा परिणाम प्राप्त करने में सक्षम हो पाता? लोगों को परमेश्वर के बारे में समझाने के लिए देहधारी परमेश्वर का महत्व समझाया जाता है। कोई परमेश्वर को समझ जाए तो उसके बाद, स्वाभाविक रूप से उसका हृदय ऐसा हो जाता है जो ईश्वर का सम्मान करता है, और इसमें अब मनुष्य का अभ्यास शामिल होता है। तो परमेश्वर के वचनों का कोई पहलू और सत्य का कोई पहलू उतना आसान नहीं है जितना आप कल्पना करते हैं। यदि आप, यह सोचते हुए कि किसी भी प्रश्न का उत्तर एक परिच्छेद से दिया जा सकता है, ईश्वर के वचन और दिव्य भाषा को सरल मानते हैं, तो वह सत्य नहीं है। प्रत्येक लेख में कई दृष्टिकोण होते हैं जिनमें से परमेश्वर के वचन बोले जाते हैं और लोगों के लिए उनके शब्दों को संक्षेप में कहने या सारांश करने का कोई तरीका नहीं है। उसे देखो जिसका आप लोगों ने सारांश किया है। आपको लगता है कि इस अंश ने उपरोक्त प्रश्न का उत्तर दे दिया है, लेकिन यह अंश अन्य प्रश्नों से भी संबंधित है। तो आप उसे क्या कहते हैं? सत्य में कई चीजें समाविष्ट हैं। ऐसा क्यों कहा जाता है कि सत्य ही जीवन है, कि वह मनुष्य को आनंद प्रदान कर सकता है, कि इसे कई जन्मों या कई सौ वर्षों में भी इसकी पूर्णता में अनुभव नहीं किया जा सकता है? उदाहरण के लिए आपने सत्य के कुछ पहलुओं या परमेश्वर के वचनों के कुछ अंशों का सारांश किया होता, फिर इसके बारे में कोई प्रश्न पूछा होता। फिर, इस प्रश्न के आलोक में, आपको इस अंश को पढ़ना होता, तब यह स्पष्ट हुआ होता कि इस अंश को उस प्रश्न के उत्तर में पढ़ा गया है। तो यह अंश एक सूत्र, एक नियम और एक सिद्धांत बन गया है, और सत्य नहीं है। यद्यपि मूल शब्दों में से एक भी नहीं बदला है, यह स्पष्ट रूप से एक सिद्धांत है, और सत्य नहीं है। क्यों? क्योंकि आपके द्वारा पूछा गया प्रश्न गलत तरीके से पूछा गया था। इसने लोगों को पथभ्रष्ट कर दिया और उन्हें सिद्धांतों में ले आया, इसे आपके सिद्धांतवादी दृष्टिकोण का उपयोग करके पढ़वाते हुए, उनसे इस प्रश्न पर विचार, कल्पना, मनन करवाया, और आपके सिद्धांतों के अनुसार इस अंश को पढ़वाया। तब वे केवल एक ही प्रश्न को देखते हुए और किसी अन्य पहलू को न देखते हुए, इसे इधर-उधर पढ़ेंगे। अंत में उन्हें उन जगहों पर लाया जाएगा जहाँ वे सत्य का अनुभव नहीं कर सकते हैं और परमेश्वर के वचन का अनुभव नहीं कर सकते हैं, ऐसी जगह जहाँ वे स्वयं को केवल सिद्धांतों से सज्जित कर सकते हैं और उन पर चर्चा कर सकते हैं और जहाँ वे परमेश्वर को नहीं समझ सकते हैं। तब वे जो कुछ भी बोलेंगे, वह सभी सुखद-लगने-वाले सिद्धांत, सही सिद्धांत होंगे, लेकिन उनके भीतर कोई वास्तविकता नहीं होगी और उनके पास चलने के लिए कोई मार्ग नहीं होगा। इस प्रकार का मार्गदर्शन वास्तव में गंभीर नुकसान पहुँचाता है! मनुष्य की परमेश्वर की सेवा में सबसे बड़ी वर्जना क्या है? क्या आप जानते है? आपमें से वे लोग जो मार्गदर्शक के रूप में सेवा करते हैं, वे हमेशा अधिक चतुरता प्राप्त करना चाहते हैं, बाकी सब से श्रेष्ठ बनना चाहते हैं, नई तरकीबें पाना चाहते हैं ताकि परमेश्वर देख सकें कि आप लोग वास्तव में कितने महान मार्गदर्शक हैं। हालाँकि, आप लोग सत्य को समझने और परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। आप लोग हमेशा दिखावा करना चाहते हैं; क्या यह निश्चित रूप से एक अहंकारी प्रकृति का प्रकटन नहीं है? कुछ लोग यह भी कहते हैं: “ऐसा करके मुझे विश्वास है कि परमेश्वर बहुत प्रसन्न होंगे; वह वास्तव में इसे पसंद करेंगे। इस बार मैं परमेश्वर को देखने दूँगा, उन्हें एक अच्छा आश्चर्य दूँगा।” प्रकट रूप से यह आश्चर्य कोई समस्या नहीं है, लेकिन परिणामस्वरूप आपको हटा दिया जाता हैं! जो कुछ भी आपके मन में आता है उसे उतावलेपन में न करें। परिणामों पर विचार नहीं करना ठीक कैसे हो सकता है? जब आपमें से जो परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करते हैं और उनके प्रशासनिक आदेशों का अपमान करते हैं, समाप्त कर दिए जाते हैं, तब आपके पास कहने के लिये कोई शब्द न होंगे। आपके अभिप्राय पर ध्यान दिए बिना, इस बात पर ध्यान दिए बिना कि आप जानबूझकर ऐसा करते हैं या नहीं, यदि आप परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझते हैं या परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते हैं, तो आप आसानी से परमेश्वर को अपमानित करेंगे और आसानी से उनके प्रशासनिक आदेशों का अपमान करेंगे: इस चीज़ को लेकर प्रत्येक को सतर्क रहना चाहिये एक बार जब आप ईश्वर के प्रशासनिक आदेशों का गंभीरता से अपमान करते हैं या परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करते हैं, तो परमेश्वर यह विचार नहीं करेंगे कि आपने इसे जानबूझकर किया या अनजाने में; इस चीज़ को आपको स्पष्ट रूप से अवश्य देखना चाहिए। यदि आप इस मुद्दे को हल नहीं कर सकते हैं, तो आपको निश्चित रूप से समस्या होनी है। परमेश्वर की सेवा करने में, लोग महान प्रगति करना, महान कार्य करना, महान वचन बोलना, महान कार्य निष्पादित करना, बड़ी-बड़ी पुस्तकें मुद्रित करना, महान बैठकें आयोजित करना और महान मार्गदर्शक बनना चाहते हैं। यदि आप हमेशा उच्च महत्वाकांक्षाएँ रखते हैं, तो आप परमेश्वर के महान प्रशासनिक आदेशों का अपमान करेंगे; इस तरह के लोग शीघ्र ही मर जाएँगे। यदि आप परमेश्वर की सेवा में ईमानदार, धर्मनिष्‍ठ या विवेकशील नहीं हैं, तो आप कभी न कभी परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का अपमान करेंगे। यदि आप परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करते हैं, उनके प्रशासनिक आदेशों का अपमान करते हैं, और इस तरह परमेश्वर के विरुद्ध पाप करते हैं, तो वह यह नहीं देखेगा कि आपने ऐसा किस कारण से किया, न ही आपके इरादों को देखेगा, तो आप मुझे बताएँ कि क्या परमेश्वर अविवेकपूर्ण है? क्या वह मनुष्य के प्रति निर्दयी हो रहा है? नहीं, मैं नहीं क्यों कहता हूँ? क्योंकि आप बहरे, बेवकूफ या अंधे नहीं हैं। आप सभी देख और सुन सकते हैं, और फिर भी आप अपराध करते हैं। तब भी आप किस कारण से बात कर सकते हैं? यहाँ तक कि यदि आपके मन में कोई इरादे न भी हों, तब भी जब आप परमेश्वर को अपमानित करते हैं, तो आपको अवश्य नष्ट होना और दण्ड भुगतना चाहिए। क्या आपकी किसी भी स्थिति का ध्यान रखने की आवश्यकता है? किसी को भी चाकू-की-नोक पर परमेश्वर के प्रशासनिक आदेश या परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है। ऐसा नहीं होता है। यदि किसी ने यह कहते हुए आपके गले पर चाकू रखा और आपको बाध्य किया, कि “अपने परमेश्वर को धिक्कारो। तुम्हारे उसे धिक्कारने के बाद मैं तुम्हें पैसा दूँगा और तुम्हें नहीं मारूँगा।” शायद इस तरह की स्थिति में आप केवल कुछ ईशनिंदा करेंगे क्योंकि आप मरने से डरते हैं। क्या इस तरह की स्थिति हो सकती है? चीजें इतनी दूर तक नहीं जाती, क्या वे जाती हैं? यह कि परमेश्वर का स्वभाव अपराध की इजाजत नहीं देगा इसमें इसके निहितार्थ का समावेश है। तब भी परमेश्वर के दंड लोगों की परिस्थितियों और उनकी पृष्ठभूमियों पर आधारित होते हैं। एक स्थिति यह है कि जहाँ किसी को पता ही नहीं है कि वह परमेश्वर है और उसे अपमानित कर देताहै। यह जानना कि वह परमेश्वर है और तब भी उसे जानबूझकर अपमानित करना एक अन्य स्थिति है। यदि किसी व्यक्ति को पूरी तरह से ज्ञात है कि वह परमेश्वर है और तब भी उसे अपमानित करता है, तो उस व्यक्ति को अवश्य दंडित किया जाना चाहिए। परमेश्वर अपने कार्य के हर चरण में अपना कुछ स्वभाव व्यक्त करते हैं - क्या लोग इसमें से किसी से अवगत हैं? उसने इतने वर्षों तक कार्य किया है, क्या लोग उनके स्वभाव को नहीं जानते और नहीं जानते हैं कि कौन सी चीजें जो लोग करते या कहते हैं, आसानी से परमेश्वर को अपमानित कर सकती हैं? और परमेश्वर की प्रशासनिक व्यवस्थाओं द्वारा परिभाषित चीजें हैं - लोगों को क्या करना चाहिए और उन्हें क्या नहीं करना चाहिए - क्या लोगों को ये भी नहीं पता हैं? लोग कुछ चीजों को नहीं समझ सकते हैं जिनका सत्य से या सिद्धांत से लेना देना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने उस स्तर तक अनुभव नहीं किया है, और इसलिए समझने का कोई तरीका नहीं है। परन्तु परमेश्वर के प्रशासनिक आदेश एक स्पष्ट रूप से वर्णित दायरे के भीतर हैं और नियमों से संबंधित हैं। लोगों के लिए उन्हें किसी भी तरह से समझना आवश्यक नहीं है, केवल यही कि वे उनके शाब्दिक अर्थ का पालन करें। क्या यह कुछ ऐसा नहीं है जिस पर मनुष्य को विवाद करना है? आप किसी भी चीज पर अधिक ध्यान नहीं देते हैं और आप परमेश्वर से नहीं डरते हैं, इसलिए आपको दण्ड भुगतना चाहिए!
मसीह की बातचीतों के अभिलेख” से

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