अध्याय 36.केवल अपनी खुद की परिस्थितियों को समझ कर आप सही रास्ते पर चल सकते हैं

अक्सर मनुष्य में कुछ नकारात्मक परिस्थितियां मौजूद रहती हैं। उनमें से कुछ ऐसी परिस्थितियां हैं जो लोगों को प्रभावित कर सकती हैं या उन्हें नियंत्रित कर सकती हैं। कुछ ऐसी परिस्थितियां हैं जो किसी को सही मार्ग से भी अलग कर सकती हैं और गलत दिशा में भेज सकती हैं। मनुष्य क्या चाहता है, वो किसकी ओर ध्यान देते हैं और किस मार्ग का चयन करते हैं- ये सभी उनकी आंतरिक परिस्थितियों से जुड़े हैं। इससे भी ज्यादा मनुष्य की कमजोरी या ताकत उनकी आंतरिक परिस्थितियों से जुड़ी हुई है। उदाहरण के लिए, कई लोग अब परमेश्वर के दिन पर विशेष जोर देते हैं; वे सभी इसे चाहते हैं, परमेश्वर का दिन तेजी से आने की इच्छा करते हैं ताकि वे खुद को इस पीड़ा, इन बीमारियों, इस उत्पीड़न आदि से मुक्त कर सकें। लोग सोचते हैं कि जब परमेश्वर का दिन आएगा तब तो उन्हें इस पीड़ा से निकाल दिया जाएगा, वे फिर कभी भी कष्टों का सामना नहीं करेंगे, और वे मुक्त हो जाएंगे।
अगर कोई इस तरह की स्थिति के भीतर से परमेश्वर को समझना चाहते हैं या सत्य की खोज करते हैं, तो उनकी खोज सीमित होगी। जब उन्हें कोई भी झटका लगता है या उनके साथ कुछ अप्रिय हो जाता है, तो उनके अन्दर की सारी कमजोरी, नकारात्मकता और विद्रोह सामने आ जाते हैं। इसलिए यदि किसी की हालत असामान्य या गलत है, तो उनकी खोज का उद्देश्य भी गलत होगा और निश्चित रूप से अपवित्र होगा। कुछ लोग गलत परिस्थितियों के भीतर से प्रवेश करना चाहते हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे अपनी खोज में अच्छा कर रहे हैं, कि वे परमेश्वर की आवश्यकताओं के अनुरूप चीजें कर रहे हैं और सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहे हैं। वे यह नहीं मानते हैं कि वे परमेश्वर के प्रयोजन के खिलाफ गए हैं या उसकी मर्जी से भटक गए हैं। आप ऐसा महसूस कर सकते हैं, लेकिन जब कुछ अप्रिय घटना या मुश्किल माहौल आपको पीड़ित करता है, तो यह आपके कमजोर बिन्दुओं को छूता है और उन चीजों को छूता है जिनकी आप अपनी आत्मा की गहराई में इच्छा करते हैं। आपकी आशाएं वाष्पित हो जाती हैं और आपके सपने कुछ भी नहीं रहते हैं, इसलिए आप स्वाभाविक रूप से कमजोर हो जाते हैं। तो उस समय की आपकी स्थिति तय करेगी कि आप मजबूत हैं या कमजोर हैं। अब ऐसे कई लोग हैं जो मानते हैं कि वे बहुत शक्तिशाली हैं और उनमें कुछ महानता है, या पहले की तुलना में वे अधिक विश्वास रखते हैं, कि वे पहले से ही सही मार्ग पर हैं और अब उन्हें खींचने के लिए या उन्हें प्रेरित करने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं है। तो ऐसा क्यों है कि मुश्किल परिस्थितियों का सामना होते ही वे कमजोर हो सकते हैं? इन वातावरणों में उनका विश्वास क्यों खो सकता है? उस बिन्दु तक जहां वे दुनिया में लौट आते हैं? इसके अलावा, ऐसे लोग भी हैं जो स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर है लेकिन उसमें विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। यह दर्शाता है कि सभी के पास कुछ असामान्य परिस्थितियां हैं। यद्यपि आप परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य की खोज करते हैं, फिर भी आप अपने अंदर की उन चीजों को पूरी तरह से त्याग नहीं पा रहे हैं। मनुष्य के अंदर की कुछ अशुद्ध चीजों का आसानी से त्याग नहीं किया जाता है, इसलिए मनुष्य केवल धीरे-धीरे बदल सकता है जब उन्हें परमेश्वर के प्रकाशन के माध्यम से इनकी समझ होती हैं। कुछ लोगों का मानना ​​है कि उनकी परिस्थितियों के बारे में बात करने के बाद भी वे कोई बदलाव नहीं अनुभव करते हैं। यह एक ही बात नहीं है! इसे इंगित करने के बाद वे मानते हैं कि परिस्थिति सही नहीं है और भविष्य में इसके फिर से प्रकट होने पर वे इसे असामान्य रूप में पहचान सकेंगे। वे यह भी पहचानेंगे कि, इस तरह के दिल के साथ, उनकी प्रवेश की खोज और उनके कर्तव्यों का करना उस स्तर तक नहीं पहुंच सकते जिसकी परमेश्वर को आवश्यकता है, वे परमेश्वर को बहुत कम संतुष्ट कर सकते हैं। कई लोग झूठे आधार की बुनियाद पर उनकी खोज से विश्वास करना शुरू करते हैं, परिणामस्वरूप वे अक्सर नकारात्मक और कमजोर होते हैं, और खड़े नहीं रह सकते हैं। उदाहरण के लिए- कुछ लोग अपनी धारणाओं में महसूस करते हैं कि परमेश्वर उन्हें एक वादा करता है कि वे पकड़े नहीं जाएंगे, या अब उन्होंने अपने परिवार को ठुकरा दिया है, तो परमेश्वर उनके जीवन के बाकी हिस्सों के लिए उनकी देखभाल करने की गारंटी देगा। उन्हें लगता है कि परमेश्वर को इस तरह से होना चाहिए, जब तक कि एक दिन कुछ ऐसा उत्पन्न नहीं हो जाता है जो कि उनकी इच्छाओं से कम होता है; यह एक बीमारी हो सकती है, और अपने ही परिवार के साथ रहना जितना सहज था, उतना अपने मेजबान परिवार के साथ रहना सहज नहीं होता, जब वे जो चाहें खा सकते थे और जब चाहें लेट सकते थे, और वे सामना करने में असमर्थ महसूस करते हैं अगर दूसरों द्वारा उनकी देखभाल थोड़ी कम है, इसलिए इन परिस्थितियों के तहत वे कमजोर हो जाते हैं। ऐसा कुछ उन्हें निराश और कमजोर होने की ओर ले जा सकता है, और वे लंबे समय तक शिकायत करेंगे, इस हद तक ​​कि ​​वे सत्य की खोज करना छोड़ देते हैं और परमेश्वर पर विश्वास के महत्व को नकार देते हैं। इसलिए अगर लोग उनके भीतर कुछ परिस्थितियों को समझ नहीं पाते हैं या यदि उन्हें नहीं लगता कि वे गलत हैं, तो चाहे कितने कठिन प्रयास से वे सत्य को खोजते हैं या वे कितने उत्साही हैं, वे एक दिन गिर सकते हैं। आखिरकर, बहुत कम लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं। सत्य को समझना एक साधारण बात नहीं है। थोड़ासा समझने के लिए भी लंबा समय लगता है, अनुभव के माध्यम से थोड़ी सी समझ पाने के लिए, थोड़ी सी शुद्ध समझ जानने के लिए या थोड़ा सा प्रकाश हासिल करने के लिए लंबा समय लगता है। यदि आप अपने भीतर की सभी अशुद्धियों का समाधान नहीं करते हैं, तो वह थोड़ा सा प्रकाश का अंश किसी भी समय या जगह पर डूब सकता है। मनुष्य के साथ आज मुख्य कठिनाई यह है कि हर व्यक्ति के अपने भीतर कुछ कल्पनाएं, धारणाएं, इच्छाएं और खाली आदर्श हैं जो वे स्वयं खोजने में असमर्थ हैं। ये बातें लोगों के साथ हमेशा रहती हैं, उन्हें अंदर से गड्ड-मड्ड कर देती हैं। यह निश्चित रूप से बहुत खतरनाक है और वे शायद किसी भी समय गलत हो जाएंगे, बकवास बोलेंगे या शिकायत करना शुरू करेंगे। मनुष्य के अंदर कितनी अशुद्धता है। हालांकि हो सकता है उनकी इच्छायें अच्छी हों, जैसे "मुझे सत्य की खोज करनी चाहिए, मुझे परमेश्वर में एक अच्छा विश्वासी होना चाहिए", वे फिर भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। इस तरह की चीज़ अक्सर हर किसी के अनुभव में होती है। अन्य लोगों को लग सकता है कि ऐसे छोटे मामलों को आसानी से त्यागा जा सकता है, लेकिन ऐसा क्यों है कि आप उन्हें त्याग नहीं सकते? सामान्यतः अपेक्षाकृत अनुभवी लोग, जो दूसरों को तुलनात्मक रूप से मजबूत दिखते हैं, और जिनके पास स्पष्ट मस्तिष्क हैं, वे एक छोटा सा मामला सामने आते ही क्यों गिर जाते हैं, और इतनी जल्दी गिर जाते हैं? यह सच है कि मनुष्य भाग्य की चंचलता के अधीन है; यह कैसे संभव है कि वे इसकी भविष्यवाणी कर सकें? हर व्यक्ति के अंदर कुछ चीजें हैं जिनका वे पीछा करने और प्राप्त करने के लिए तैयार हैं, और हर किसी की अपनी पसंद है। अधिकतर, लोग यह खुद से नहीं समझ सकते, या उनका मानना हैं कि ये बातें ठीक हैं, कि उनके साथ कुछ भी गलत नहीं है। फिर एक दिन ऐसा कुछ आ जाता है और वे ठोकर खाते हैं, वे नकारात्मक हो जाते हैं, कमजोर हो जाते हैं, और वापस नहीं उठ पाते हैं। संभवतः उनको खुद को पता नहीं होता कि समस्या क्या है, केवल यह भावना कि वे न्यायोचित हैं और यह कि वह परमेश्वर हैं जिसने उनके साथ गलत किया है। अगर आप खुद को समझ नहीं पाते तो आप कभी भी यह नहीं जान पाएंगे कि आपकी अपनी कठिनाइयां कहाँ हैं, और न ही आप यह जान पाएंगे कि आप अपने अंत से कैसे मिलोगे। यह दयनीय है। ऐसा लगता है जैसे मनुष्य के अन्दर की अशुद्धियां उन्हें कभी-कभी बर्बाद कर सकती हैं।
बहुत से लोग इससे पहले यह कह चुके हैं - "मैं सभी सत्य को समझता हूँ, सिर्फ इतना है कि मैं इसे अभ्यास में नहीं ला सकता।" यह वाक्य मूल समस्या को प्रकाशित करता है, जो लोगों के स्वभाव में भी एक समस्या है। अगर किसी का स्वभाव सत्य से ऊब जाता है तो वे सत्य को कभी भी लागू नहीं करेंगे। जो लोग सत्य से ऊब गए हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर में अपने विश्वास के साथ असाधारण इच्छाओं को संजोए रखेंगे; कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे क्या करते हैं, उनके अपने इरादे हमेशा मौजूद होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है और वे घर लौटकर नहीं जा सकते हैं इच्छा करते हैं और कहते हैं- "ओह, इतने समय के बाद मैं अभी भी घर नहीं जा सकता। लेकिन मुझे पता है कि एक दिन परमेश्वर मुझे एक बेहतर घर देगा। वह मुझे दुख से बचाएगा और कोई फर्क नहीं पड़ता मैं कहाँ रहता हूँ वह मुझे खाने के लिए खाना देगा। परमेश्वर मुझे ऐसी जगह नहीं ले जायेगा जहां रास्ता न हो। अगर उसने ऐसा किया तो वह गलत होगा, यह उसकी गलती होगी। यह मेरी गलती नहीं होगी।" क्या लोगों के भीतर ये विचार नहीं हैं? या कुछ ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं, "मैं परमेश्वर के लिए बहुत खर्च कर रहा हूँ, इसलिए उसे मुझे सत्ताधारी अधिकारियों के हाथों में नहीं सौंपना चाहिए।" या वे सोचते हैं, "मैंने बहुत त्याग किया है और मैं सचमुच सत्य की खोज में हूँ, इसलिए परमेश्वर को मेरे साथ इस प्रकार का व्यवहार करना चाहिये।” या "हम परमेश्वर के दिन के आने का बहुत इंतजार कर रहे हैं, ताकि परमेश्वर का दिन शीघ्र ही आए और परमेश्वर को हमारी इच्छाओं को पूरा करना चाहिए।" इसके अलावा, लोग परमेश्वर से असाधारण मांग करते हैं, जैसे- "हमने ऐसा किया है, इसलिए परमेश्वर का ऐसा और ऐसा करना ही सही है। हमने कुछ चीजें हासिल की हैं, इसलिए परमेश्वर को हमें कुछ इनाम देना चाहिए और हमें आशीर्वाद देना चाहिए। "बहुत से लोग इन विचारों को अपने अंदर बनाए रखते हैं। जब वे दूसरों को देखते हैं अपने घर छोड़ते हुए, अपने पति और उपने परिवार को छोड़ते हुए, फिर एक आरामदेह तरीके से परमेश्वर के लिए खर्च करते हैं, वे नीचा महसूस करते हैं और सोचते हैं- "दूसरों ने इतनी देर तक अपने घर छोड़ दिए हैं, वे कैसे इस पर काबू पा सकते हैं? उनका रहस्य क्या है? मैं कभी इस पर काबू क्यों नहीं पा सकता? मुझे हमेशा घर क्यों याद आता है? मैं अपना परिवार, अपना पति और अपने बच्चों को क्यों कभी नहीं छोड़ सकती?" आखिरकार, वे सोचते हैं- "परमेश्वर क्यों उस पर दयालु हैं लेकिन मुझ पर नहीं? मुझे हमेशा घर की याद क्यों आती है? पवित्र आत्मा मुझ पर अनुग्रह क्यों नहीं करती? परमेश्वर मेरे साथ क्यों नहीं है? "यह क्या स्थिति है? लोग कितने अविवेकी हैं। वे सत्य को नहीं अपनाते लेकिन इसके बजाय परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं। उनके पास अपने व्यक्तिपरक प्रयासों में से कुछ भी नहीं है और न ही कोई चीज़ जो उन्हें आत्मगत रूप में प्राप्त करनी चाहिए। उन्होंने उन विकल्पों को छोड़ दिया है जो उन्हें व्यक्तिपरक रूप से करने चाहिए और जिस रास्ते पर उन्हें चलना चाहिए। वे हमेशा परमेश्वर से ऐसा करने के लिए या वैसा करने के लिए मांग करते हैं, और चाहते हैं कि परमेश्वर आँख बंद करके उन पर दया करें, आँख बंद करके उन पर अनुग्रह करें, उनका मार्गदर्शन करें, उन्हें आनंद दें। वे सोचते हैं- "मैंने अपना घर छोड़ दिया है, मैंने बहुत त्याग किया है, मैं अपना कर्तव्य करता हूँ और मैंने इतना दुख सहा है। इसलिए परमेश्वर को मुझ पर अनुग्रह करना चाहिए, मुझे घर की याद नहीं आनी चाहिए, मुझे चीजों का त्याग करने का संकल्प देना चाहिए और मुझे और शक्तिशाली बनाना चाहिए। मैं इतना कमजोर क्यों हूँ? दूसरे इतने शक्तिशाली क्यों हैं? परमेश्वर को मुझे शक्तिशाली बनाना चाहिए।" किसी को ये शब्द कहते हुए देखते हैं, तो यह स्पष्ट है कि वे पूरी तरह अविवेकी हैं, बहुत कम उनके पास कोई सत्य है। लोगों की शिकायतें कैसे आती हैं? "आह, दूसरे लोग जब घर वापस नहीं जा पाते तो उन्हें कैसे मेजबान परिवार मिल जाते हैं? मुझे किसी की मेजबानी क्यों नहीं मिल पाती? मुझे वह सब क्यों नहीं मिल सकता? अन्य सभी लोग घर जा सकते हैं, लेकिन मेरे घर पर प्रतिकूल परिस्थितियां क्यों हैं?" ये ऐसे विचार हैं जो लोगों के भीतर से उत्पन्न होते हैं और वे पूरी तरह से उनके स्वभाव के प्रतिनिधि हैं। ये उनके अंदर की चीजें, चाहे वे कैसी भी परिस्थिति का सामना करें, उन्हें सही मार्ग का त्याग करने की तरफ ले जा सकती हैं और किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकती हैं। चाहे उनका कद कितना भी ऊंचा हो, सत्य को चाहे कितना भी समझते हों, अगर वे इन चीजों को अपनेअंदर से नहीं निकालते हैं, तो उन्हें टिके रहने का आश्वासन कभी भी नहीं मिल पायेगा। । उनके लिए परमेश्वर को धोखा देना, उनके लिए ईश- निन्दा करना और उनके लिए किसी भी समय और किसी भी जगह सत्य के मार्ग का त्याग करना संभव होगा । यह ऐसा कुछ है जो बहुत आसानी से हो सकता है। क्या आप अब स्पष्ट देखते हैं? लोगों को समझना चाहिए और उनकी प्रकृति किसी भी समय क्या प्रकट कर सकती है इस पर प्रभुत्व पाना चाहिए; उन्हें इस समस्या की ओर ध्यानपूर्वक बढ़ना चाहिए। सत्य की तुलनात्मक रूप से अच्छी समझ वाले लोग कभी कभी थोड़े जागरूक हो जाते हैं। तब वे समस्या की खोज कर सकते हैं और गहरा आत्मनिरीक्षण कर सकते हैं। कभी कभी, हालांकि, उन्हें समस्या की जानकारी नहीं होगी और इसीलिए ऐसा कुछ भी नहीं होगा जो वे कर सकते हैं। तब वे केवल इंतजार कर सकते हैं परमेश्वर उनके सामने भेद खोलें और तथ्य प्रकाशित करें। कभी-कभार विचारहीन लोग जागरूक हो जाते हैं, लेकिन वे खुद को बहलाते हैं, ऐसा कहते हैं- "ओह, सभी लोग ऐसे ही हैं, इसलिए इसका कुछ भी मतलब नहीं है। परमेश्वर मुझे माफ़ कर देगा और उसे याद नहीं रहेगा। यह एकदम सामान्य है।" उन्हें क्या चुनना चाहिये और क्या करना चाहिये, वे ऐसा न तो करते हैं और न ही उसे हासिल करते हैं। वे सब बेवकूफ़, गंभीर रूप से निष्क्रिय हैं, और वे बहुत ही निर्भर हैं, यहां तक ​​कि असंभव के लिए आकांक्षी हैं- "यदि परमेश्वर हमें एक दिन पूरी तरह बदल देते हैं, तो हम और निष्क्रिय नहीं होंगे। फिर हम सहायता के बिना चल सकते हैं। फिर परमेश्वर को हमारे लिए इतना परेशान होने की ज़रूरत नहीं होगी।" तो, अब आपको स्पष्ट दिखना चाहिए। इस रास्ते पर चलने का मतलब है कि आपकी अपनी पसंद होनी चाहिए, और प्रत्येक व्यक्ति कैसे चुनता है बहुत महत्वपूर्ण है। आपके पास इतनी जागरूकता है, तो जब बात आत्म संयम करने की आती है तब आप कितने शक्तिशाली हैं? जब खुद को त्यागने की बात आती है तब आप कितने शक्तिशाली होते हैं? यह सत्य का अभ्यास करने का आधार है और मुख्य तत्व है। जब भी आपका किसी से सामना होता है या जब भी आप किसी स्थिति में कुछ करते हैं, जहां आपको सत्य के अनुरूप ऐसा करने की जानकारी है, तब आप क्या विकल्प चुनते हैं? आपको व्यवहार में क्या लाना चाहिए? केवल अपने स्वयं के लिए इस मामले को स्पष्ट करके आपको आगे बढ़ने का तरीका पता चलेगा। यदि आप स्वयं की परिस्थितियों की सही और गलत बातों के प्रति जागरूक रह सकते हैं, लेकिन पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो सकते हैं और आप केवल अपने भ्रमित तरीके से आगे बढ़ते रहें, तो आप कभी भी कोई प्रगति नहीं करेंगे या किसी भी सफलता का अनुभव नहीं करेंगे। यदि आप जीवन में प्रवेश के बारे में गंभीर नहीं हैं, तो केवल आप खुद को पीछे रोक रहे हैं, और यह केवल इतना साबित कर सकता है कि आप सत्य से प्यार नहीं करते हैं। पहले, कुछ लोगों ने सोचा था- "हम बड़े लाल अजगर के तेजी से पतन होने की इच्छा करते हैं और हम इच्छा करते हैं कि परमेश्वर का दिन जल्दी आ जाए। क्या ये उचित मांगें नहीं हैं? क्या परमेश्वर का दिन जल्दी आने की इच्छा करना परमेश्वर की तेजी से महिमा के लिए इच्छा करने के बराबर नहीं है?” लोग अपनी प्रच्छन्न परन्तु सुखद-अर्थ की व्याख्याएं बीच में ले आते हैं, जबकि वास्तव में, लोग केवल स्वयं के लिए ऐसा करते हैं। उनकी ऐसी कौनसी लालसा है जो उनके स्वयं के लिए नहीं है? कुछ भी नहीं। वे ऐसा केवल इसलिए करते हैं कि वे स्वयं अपनी मुश्किल परिस्थितियों में से जल्द से जल्द मुक्त हो सकें, जिससे वे खुद को इस दर्दनाक संसार से मुक्त कर सकें। विशष रूप से कुछ लोग हैं जो परमेश्वर के ज्येष्ठ बच्चों को पहले दिए हुए वादे को देखते हैं और उनके लिए यह एक अविश्वसनीय प्यास है। जब भी वे वह शब्द पढ़ते हैं, यह खुद को झूठी उम्मीदों के साथ सांत्वना देने जैसा है। मनुष्य के भीतर की लालची और स्वार्थी इच्छाओं का अभी पूरी तरह से त्याग नहीं हुआ है।, इसलिए आप चाहे जैसे भी सत्य की खोज करें, यह आधा-अधूरा ही होगा। जब कुछ धर्मान्तरित लोग परमेश्वर के दिन की इच्छा करते हैं, लेकिन वह नहीं आता है, तो वे कैसे चीख़ते हैं और चिल्लाते हैं! ऐसे व्यथित जैसे वे खुद झुलसे और आग से जलाए जा रहे हैं, और वे जोर से चिल्लाते हैं- "ओह! मैं इसे और बर्दाश्त नही कर सकता! परमेश्वर का दिन कब आएगा? अब हम और सहन नहीं कर सकते! ओह, क्या परमेश्वर का दिन जल्दी नहीं आएगा? ” हमें एक साथ प्रार्थना करनी चाहिए।" वे ऐसा महसूस करते हैं कि जैसे यह दो वर्ष असहनीय हो गए हैं। चर्च के वह दिग्गज जिन्होंने हमेशा परमेश्वर का अनुसरणकिया है अब भी कैसे परमेश्वर का अनुसरणकर सकते हैं? क्या ये शब्द उन्हें बनाए नहीं रखते हैं? क्या आपके लिए, अन्दर इतनी अशुद्धता रहने देना, लेकिन निर्मल करने की प्रक्रिया को स्वीकार नहीं करना उचित है? आप बिना दुख सहे कैसे बदल सकते हैं? केवल एक निश्चित स्तर तक निर्मल होने के पश्चात ही आप अपने दिल से परमेश्वर की व्यवस्था का पालन करने में सक्षम होंगे और फिर कभी कोई शिकायत नहीं रहेगी। जब वह समय आएगा, तो आप पूरी तरह से बदल चुके होंगे।
मसीह की बातचीतों के अभिलेख” से

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